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4-जी ‘बाबा’…बाबा रे बाबा !!! ऐसी भी क्या ज़रुरत आन पड़ी थी रे बाबा ???

क्यूँ न कहूँ ???
क्यूँ न कहूँ ???
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बाबा शब्द सुनते ही नि:संदेह हमारे दिलो दिमाग में किसी कमण्डल-धारी माथे पर चंन्दन/भभूत भगवा/लाल, शवेत या काले लिबास धरे काधें में झोली धर्मग्रंथ/उपनिषद की पुरानीं कुछ कृतियाँ उसके फटे-बिखरे कुछ पन्नें मधुकरी’में मिली भिख की पोटली, नंगे पाव, भुखे पेट, मुँख पे परमात्मा का नाम, लंम्बे बिखरे लट ,कही-कहीं धुन भी रमाये, लोक भाषा में लोक-परलोक के कुछ उपदेश सुनाते, सत्संग करते नेत्र पटल पर किसी वैरागी संत की तस्वीर बनती नजर आती है ना ! ये बाबा भी कितनें निराले होते है, ‘दुखो के दागों को तमगे सा लपेटे’ अपनें भीतर सदियों की गाथा व आध्यात्म समेटे, घर परिवार से बेख़बर और उनकी चिंता किये बगैर सांसारिक मायाजाल से कोसो दुर लोक कल्याण को समर्पित… ये हमें कभी पथभ्रमित नहीं करते सदा धर्म और निति की राह पर चलनें कि सलाह देते हैं, इनसे हमें अहिंसा,मानवता की रक्षा आदि की सच्ची प्रेरणा मिलती है। ईन्हें देख मन में एक उर्जा का संचार होता है। सही मायनें में ये धर्म, संस्कृति व समाज के प्रहरी होते हैं । लेकिन ये पहचान अब थोडी पुरानी-पुरानी सी लगती है, मतलब बाबा ऐसे होते थे… अब इनकी प्रजाति व अस्तित्व पर शायद संकट के बादल मंडरानें शुरु हो गये हैं ।

लेकिन क्या सकते ये समय ही है जिसनें बड़े­-बड़े विश्वविजेतों सिकन्दर,अकबर को भी धाराशायी कर अपनी शक्ति का भान कराया है जिसका कमाल अब शायद हमारे बिश्वविख्यात बाबाओं पर भी रंग लानें लगा है । मसलन ‘समय’ बगैर परिणाम की चिंता किये अपनें साथ कमोबेश हर उस चीज को बदलती चली जाती है जो भले ही मानव सभ्यता के लिये धातक ही क्यों ना हो… अब आप कुछ समझ रहे होंगे… कि हम बात अपनें विश्वविख्यात बाबओं में आई प्रबल परिवर्तन कि कर रहे हैं जिनमें बदलाव शायद हमारी सभ्यता व संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है और हमारे न चाहते हुये डाल भी रही है ।

वैसे संतों नें हर युग में हमारा मार्गदर्शन किया है चाहे प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षा के माध्यम से हो या वर्तमान में सत्संग,प्रवचन आदि से इन्होंनें लोक कल्याण में हमेशा से ही सश्क्त भुमिका निभाई है…पुरायुग(सतयुग,व्दापर,त्रेता आदि) में जब ऑक्सफार्ड, कैंब्रिज़, हॉवार्ड, डीयू, एलपीयू ,कॉनवेंट, सेंट थॉमस, डीएवी इत्यादि विद्यालयों,विश्वविद्यालयों का कोई कॉनसेप्ट नहीं होता था, तब ये संत-ऋषि बाबा ही आज के शिक्षक, प्रोफेसर की भुमिका में होते थे, जो नि:शुल्क व नि:स्वार्थ मन से राजा-रंक सबको समभाव व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देनें का सामाजिक उत्थान बगैर किसी लोभ या आशा के करते थे जिसका उद्देश्य छात्रों में सांसारिक व व्यवहारिक ज्ञान के साथ-साथ मानवता का भी होता था…

जिनके प्रोडक्ट मर्यादापुरुषोतम श्री राम, श्रीकृष्ण आदि कई विश्वविख्यात महापुरुष साक्ष्य के रुप में आद भी विद्यमान हैं, जिनके मुख से निकले गीता उपदेश की हर पंक्तियों पर एक-एक पीएचडी भी न्योक्षावर कर दी जाये तो भी कम पड़े और जिनके चरित्र की अमरगाथा(श्रीरामचरितमानस) जनमानस को सर्वथा ही प्रेरित करती रही है… जिनके त्याग,तप व ज्ञान के सामनें परमात्माओं को भी नतमस्तक होना पड़ा व उनके दिखाये संन्मार्गों के परिणाम सर्वथा कल्याणकारी व जनउपयोगी साबित हुये। इसके इतर आज के ऑकस्फोर्डी, कोल्मबियन, विश्वविद्यालयी अंग्रेजीखा: डीग्रीधारी मूर्ख हमारे सामनें है।
समय बितता गया युग-युगांतर तक बाबाओं के स्वभाव में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया उन्होंने एक के बाद एक कई जनउपयोगी अनुसंधान किये जो जनमानस के लिये कई मायनों में वरदान साबित हुआ और आनें वाली अनगिनत पीढ़ीओं को भी लाभान्वित करता रहा…

लेकिन एक कटु सच ये भी है कि ये जो समय है परिवर्तनशील है और परिवर्तन संसार का नियम भी… सो समय के साथ जनमानस को गुरुकुल की उपयोगिता शायद कम होती दिखी होगी या ये छात्रों-अभिभावकों नें ही अपनी और भावी पिढ़ियों को आघुनिकता के गर्त में धकेलनें की भूल की होगी और फिर बाबाओं को आराम करनें को कहा होगा…कौन जाये गुरुकुल इतनीं दूर… वैसे ये 1-जी (प्रथम ) के बाबाओं की कहानी है…कन्फ्युज मत होईये शुरुआत हमारे याहाँ सीधे 2-जी से नही 1-जी से होता है… क्योंकि याहाँ गिनती 1 से शुरु होती है ना… याद रहे ये आर्यभट्ट,रामानुज जैसे संतों की पावन भूमि है जिसनें गणना के में फसें संपूर्ण विश्व को शून्य(0)का उपहार दिया,और पाईथागोरस की उपयोगिता समझायी । लेकिन ये पहचान अब शायद अतीत बननें के कगार पर है। वैसे भी जमाना हाईटेक हो गया है बदलते समय के साथ सबकुछ बदल भी रहा है, 2जी 3जी में बदल गया 4जी भी आ जायेगा बस सब्र करना है, केवल जी के ‘सीफीक्स’ को डोज देने की जरुरत है, फिर देखिये चाल में कैसे तेजी आती है… ये रैम भी ना थक जाये तो कहियेगा और, प्रोसेसर ! प्रोसेसर तो बाबा रे बाबा! ! चीखता ना सुनाई दे तो मेरे खिलाफ उपभोक्ता फोरम में ज़ालसाज़ी की जनहित याचिका दायर करके ही चैन की सांस लिजियेगा, फिर बड़े जॉली वकील बननें की गारंटी आपके खुद की तो मौके का फायदा उठानें से चुकियेगा नहीं…
फिलहाल सब्र किजिये ये इण्डिया है याहाँ 3जी को 4जी होनें में कुछ अरसे लगेंगे…हमारे याहां सभी समस्याओं का समाधान कुशल कारगीरों व्दारा तस्ल्लीबक्स किया जाता है । सो सब्र किजिये और मुफ्त में चॉकलेट का आनंद लेते रहिये…क्योंकि विज्ञापनीं भाषा में सब्र का फल चॉकलेटी होता है, बड़े बूढ़े कह गये हड़बड़ का काम शैतान का… सो हे तात जल्दबाजी ना करो! लेकिन विज्ञापन का एक पहलु ये भी है कि महींन्द्रा चलानें वाले जल्दबाजी दिखा अपनीं किश्मत खुद लिखनें का दावा करके कभी-कभी उत्तेजित भी करते रहते हैं ,और सब्र का फल मीठा/चाकलेटी होनें पर सवालिया निशान खड़े करनें से नहीं चूकते ।

खैर कायाकल्प के ऐसे और भी असंख्य प्रमाण है जैसे ‘बल्ब’ गोले-पीले से सीधे दीर्घ(लम्बे) सफेद ‘सीएफएल’और‘मर्करी’ में कम बिजली का लालच देकर जानें कब तब्दिल हो गया पता ही नहीं चला??? और अब तो इनकी भी खैर नहीं एलईडी नें पुरानें होल्डर में ही फीट बैठनें का मन जो बना लिया! उनसे भी ज्यादा रोशनीं का वायदा वो भी बिल कम… शायद ये मेट्रोपोलिटिन के छोटे-कपडों से प्रेरित हुया होगा उतनी ही सुरक्षा,ज्यादा आकर्षण,लाईक, कमेंट, शेयर लेकिन डिटरर्जेंट कम, कमाल देखिये !
वैसे अभी ये नौंटंकी अभी सिर्फ महानगरों तक ही सीमित है, ये रोग भारतीय देहात के महासागरों में अभी नहीं फैलेगा, क्योंकि टेक्नों हवायें कुछ दिन शर्द मेट्रो में बिता के ही हमारे गावों का रुख करती हैं… याहाँ अब उन शहरों में उपयोग किये गये CFL, Mercury OLX, Quicker जैसे साईट्स से ऑनलाईन खरीदे जायेगें… सब Quicker next install कर तैयार बैठे हैं, और तो और ये महाँनगरी CFL, Mercuries भी स्मार्टफोन्स के रंगीले कैमरों में कैद होंनें को सरकार की ओर टकटकी लगाये बेसब्री से दिन गिन रहे हैं शायद इसलिये भी की अंधेर चारदीवारी में ये व्यस्त जिंदगी जीनें को मजबुर रहते हैं दिन भर ऑन और आधीरात के बाद ही आराम… बस अब देरी है तो सरकार कि ओर से हामी की । वैसे आका नें गरीबों को फ्री व कम दामों में LED की धोषणा तो कि है, लेकिन धोषणाओं का क्या धोषणायें तो ज्यादातर मामलों में सरकारी झूठ ही साबित होते रहे हैं ।

खैर अपना क्या अपन अगले नमूनें (उदाहरण) कि ओर बढ़ते हैं, मूर्छित भापईंजन तो कब से म्यूजियम की गद्दी पे आसीन हुआ पड़ा हैं अब लोग उसकी एक झलक पानें को बेताब गाँधी जी की फोटू वाली नोट अदा कर पर्यटन को बढावा देनें में अपना बहुमुल्य योगदान दे प्रधानमंत्री जी के टीटीटी(ट्रेड,टूरिज्म,टेक्नॉलजी) वाले बहुप्रतिक्षित योजना को पंख लगा रहें हैं। बहरहाल जरुरत भी है, क्या पता इसी बहानें भारतीय बेरोजगार युवाशक्ति के महाकुंभ को हर हाथ शक्ति हर हाथ तरक्की मिल जाये… फिर क्या ??? हाथ शक्ति लगते ही घर वाले भी घर बसानें की कवायद शुरु कर देंगे और फिर किस्मत नें साथ दिया तो “हम दो हमारे दो”…पापाजी, मम्मीजी ये लो…और आपके भी सरदर्द का निपटारा ऐसी बेवजह लंबी-चौड़ी लाईनें फूर्सत मिलेगा ही नहीं तो लिखुंगा कब…??
अब मुद्दे पर आ जाता हूँ…वैसे उपर्युक्त लंबी चौड़ी लाइनों कि फेहरिस्त लगानें का मेरा मकसद इस फिचर लेखन में मनोंरंजन का पूट देनें के साथ-साथ बदलते परिवेश के परिणामों को दर्शानें का भी था ।

जमानां बदला तो लोग भी बदले और फिर कलयुगी जनमानस ने संतों को गुरुकुल के आसन खाली कर देनें का तुगलकी फऱमान जारी कर दिया… अब बेचारे बाबाओं को एक बंधन से निजात तो मिली लेकिन साधु मन है कि मानता नहीं चाहे कितनीं भी डंकें क्यूँ ना सहनीं पड़े… और फिर पापी पेट का भी सवाल था सो हाथों नें कमण्डल उठा वन-बस्ती भटकनें का ही निश्चय किया होगा वैसे ये 2जी(Second Generation)बाबा रहे होंगें जिनके अमिट छाप हमें स्वामीं दयानन्द ,विवेकानंद, आधुनिकता के अग्रदुत, सतीप्रथा व छुआछुत के घोर विरोधी राजा राम मोहन राय आदि महापुरुषों में दिखायी पड़ती हैं, जिंन्होंनें मिलो चल असंगठित भारतीय समाज को संगठित कर सामाजिक कुरितियों को दुर करनें का अथक प्रयास किया ।
फिर वर्षों कड़ी मश्क्कत के बाद आज़ादी मिली जिसमें बाबाओं (पूज्य संतों) के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता वैसे मेरी नज़र आजादी के सभी दिवानों को संतों की श्रेणी में ही देखती है… कुछ महानुभावों को छोड़कर।
चाहे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हों या कविगुरु टैगोर, नेताजी हों या रामप्रसाद बिस्मिल व्दिवेदी से लेकर चतुर्वेदी तक सभी नें वही किया जो एक संत सही मायनें में अपनें जनमानस के लिये कर सकता है। बस याहाँ धर्म कि जगह कर्म को तरज़ीह दी गई ।
एक संत धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिये जनमानस को एकजुट करता है/संगठित करता है, तो उन स्वतंत्रता सेनानियों नें भी यही किया चाहे अख़बार के माध्यम से हो या गांधी नें भारत भ्रमण से… और उन्हें अंगेजी हुकुमत की यातनायें भी तो सहनीं पड़ी मसलन कभी कैदी बनाये गये तो कभी कुर्बानी भी देनीं पड़ी याद किजिये इससे पहले के इतिहास को चाहे व्दापर,त्रेता हो या सवर्णयुग सतयुग हर युग में संतों नें यातनायें झेली है… वैसे 16-19वीं शाताब्दी के संतों को भी 2ndgeneration की सूची में ही रखना जायज़ होगा में इनमें ज्यादा असामनातायें नहीं दिखतीं ।

पल-पल बदलते समय के साथ आगे बढ़ते हैं… अब भारत को आज़ादी मिले काफ़ी अरसे बीत गये थे फिर भी हमारे वर्लडक्लास बाबाओं में कुछ अधिक परिवर्तन नहीं हुआ मसलन वे यथास्थिति समाधि,सतसंग,जनकल्याण आदि पुणित कार्यों में मश्गुल ही रहे। वैसे अब कुछ संतो नें राजनीति कि ओर रुख़ जरुर किया मसलन इमरजेंसी के ठीक बाद हिन्दुस्तान के दामन पर लगे दाग मिटानें राजनायण बाबा जैसे साहसी संतों नें आयरन लेड़ी इन्दिरा जी के खिलाफ़ चुनाव जरुर लड़े और हिन्दुस्तान के पहले गैर काँग्रेसी शासन में देश के स्वास्थ की कमान भी संभाली, स्वाभाविक है उतनें बड़े सक्ख्शियत के खिलाफ़ दो चार होनें का दमखम कोई बाबा ही रख सकता है। फिर कुछ भींडरावाले जैसे बाबा नें भी आयरन लेड़ी के मायाजाल में फँस राजनीति में जोर-अजमाईश जरुर किया लेकिन बुरे मंशे का अंजाम भी बुरा ही हुआ, अब भींडरावाले बाबा नें शातिं के धोर दुशमन, सश्त्र जरुर उठा लिये थे लेकिन इसका प्रभाव अन्य संतों पर बिल्कुल नहीं पड़ा…चंदन विष व्यापत नहीं लिपटत रहत भुजंग ।

इधर आजाद भारत भी आधुनिकता के चकाचौंध की ओर अग्रसर हो रहा था मसलन भारत में 1955 से टेलिविज़न के इडियट बाक्स नें अपनें रंग दिखानें शुरु कर दिये थे और रेडियो भी 1920 से ही घरघरा रहा था… फिर क्या कलयुग के चकाचौंध में विदेशी कपड़ों इत्यादि से लेकर जनसंचार में सश्क्त भुमिका निभानें वाले टेलिविज़न,रेड़ियो,अख़बार याहां तक कि लोग भी नीले-पीले हो रहे थे और कलयुग नें भी अपनें रंग जमानें शुरु कर दिये थे और नये-नये उपकरणों नें लोगों को आलसी व भौतिकवादी भी बना दिया था …सो इससे प्रभावित कुछएक बाबाओं नें भी वन-जंगल की जानी-पहचानीं पुरानी हवाओं से मोह भंग कर हाईटेक विदेशी HDV कैमरों से ही जनकल्याण की सोची और टी.वी के रंगीन पर्दों से ही स्टैंडबाई, 3.. 2..1.. ऑडियो डाउन, ऐक्सन… संत्संग,प्रवचन स्टार्ट करनें का मन बना लिया। जो आज के परिवेश के मुताबिक सही भी है आख़िर हम व्यस्त जीवन के आपाधापी में भी अपनें धर्म से दुर तो नहीं हुये जो वाकई काबिले तारीफ है ।

न वैसे भी संत ‘महात्मा गाँधी’ कह गये “या तो अपनें आप को परिस्थिति में ढ़ाल लो या मिट जाओं” सो इन्होंनें अपनें अस्तित्व की चिंता करते हुये उनका अनुसरण ही किया।लेकिन टीआरपी के गंदे खेल में फसीं लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को ये बात नागवार गुजरी सो सनसनीं और क्राईमआवर्स में बाबोओं का स्थान भी फिक्स कर ड़ाला क्योंकि प्राईमटाईम में कोई आड़े आये ये 24*7 निन्यनवे के फेर में पड़े (धन कमानें में व्यस्त) लोकतंत्र के चतुर्थ मोम के मानीन्द को कतई मंजूर नहीं ।
फिर याहां से शुरु हुआ आरोप-प्रत्यारोप का दौर और कुछएक बाबओं को हवालात की शैर भी करनीं पड़ी वैसे कुछ झलासाराम स्वाधुओं नें तो उपर-उपर बाबाजी भीतर दगाबाजी कहावत को चितार्थ भी किया लेकिन
याद रहे धर्म को प्रस्तुत करनें वाला / उसका पुजारी गल़त हो सकता है लेकिन धर्म सदा सत्य होता है ।

अभीतक भारतीय सूचनातंत्र में 2जी का ही आगमन हुआ था लेकिन हमेशा से ही अग्रणी रहे हमारे बाबा अब 3जी हो गये थे… अब तथाकथित त्रिनेत्री निर्मल बाबा का भी आगमन हो गया था इनबिल्ट सुपरफास्ट प्रोसेसिंग की मदद से चंद सेकेंड में ही डेटा सर्च… क्या खाया था, कहीं लाल चटनीं तो नहीं खायी जैसे अजूबे मर्ज भी निकल कर सामनें आये। वैसे इतनें आरोपों के बावजुद भी हाउसफुल भक्तों का बेसब्र रेला किसी ओर इशारा तो ज़रुर करता है जिसपर उन विकसित देशों के विकसित और अग्रणी अनुसंधान केन्द्र खासकर ऑक्सफार्ड, कोलंबिया इत्यादि वालों को शीघ्र ही अथक व निरर्थक प्रयास कर अपने भ्रम दुर कर लेनी चाहिये ।
आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि इस लेखक का सरोकार ऐसे बाबओं से दुर-दुर से भी नहीं है और हमारी पत्रकारिता की Ethics(निति)कहीं से भी उन करोड़ो भक्तों की आस्था पर सवालिया निशान खड़े करनें कि इज़ाज़त नहीं देता अत: हम इसे पुरी तरह गलत नहीं ठहरा सकते ।

अब भारत 21वीं सदी के परमाणु होड़ में आगे, मंगलयान का सफल परीक्षण इत्यादि अजुबे कारनामें व सुचनां युग का आनंद ले रहा था, लगभग हर नामचीन बाबाओं के फेसबुक,ट्वीटर अकाउट थे, प्रवचन की सीड़ी अब अतीत हो चले थे युट्युब जैसे किसी तत्काल दुख भंजन साईट की दरकार थी सो भक्तों नें उसे भी यथार्थ में बदल दिया अब कहीं भी कभी भी… हर हाथ स्मार्टफोंन हर हाथ स्टिगं और बची-खुची कसर युपी में तथाकथित समाजवादियों नें MS Soft (Mulayam Singh Soft) डले लैपटाप बांट के पुरा कर दिया था ।

लेकिन उस वक्त मेरे पैर तले ज़मीन खीस़क गया जब मैनें 9XM के ठुमकों के बीच फिल्मीं ट्रेलर में बाबा को हैरतअंग्रेज स्टंट करते देखा, ये तो सिर्फ ट्रेलर था… पुरी फिल्म में बाबा को जानें कितनी बार लाईट…कैमरा… कैमरा रोलिंग… ऐक्शन… की अनावश्यक ज़ोखिम उठानीं पड़ी होगी!! तब मुझे लगा कि शुरुआत से ही उदासीन रही भारत सरकार देशहित में 4जी लाये ना लाये अग्रणी बाबाओं को अपनें अनुआईयों के हित में 4जी (4th Generation) होंनें से कोई नहीं रोक सकता ।

याहाँ तक तो फिर भी ठीक था लेकिन खुशबु टीवी की सुगंध में सराबोर उस वक्त मैनें दातों तले उँगली दबा ली जब किसी नकली बाबा के वेश में मटकली के साथ एक बाबा को पुरुषार्थी आयुर्वेदिक उत्पादों के नफे में कसीदे पढ़ते देखा। लेकिन How to tell a lie?? के गुर सिखानें वाली Advertising Standard Council of India (ASCI) से उस बेलगाम कंपनी/विज्ञापन ऐजेंसी के खिलाफ कार्यवाई आपेक्षित है जिसका उन्हे जबाब देना ही होगा । स्वाभाविक है ऐसा घिनौना कदम कोई संत क्यों उठायेगा ??
लेकिन स्वतंत्र भारत में स्वतंत्रता की बेलगाम छड़ी जब हमारी सभ्यता व संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव ड़ालती है तो दु:ख होता है और काफ़ी दु:ख होता है, जिसका निवारण इन दर्द प्रदायकों को ना चाहते हुये भी करना ही पड़ेगा

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