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हँसना क्या हो सकता है?? एक मनोदश, मन का भाव!! मेरी नजर में ये ‘अमूक योग’ है…योग के कई प्रकार होते हैं, हजारों भंगीमायें होती हैं, और उन प्रकारों में ये भी एक प्रकार है, लेकिन इसके भी कई प्रकार हैं…
मैनें याहाँ हँसे जानें वाली हँसी की कुछ श्रेणीयां बनाई हैं, ठीक रविश सर के हार्नों की तरह, जो कुछ इस तरह हैं…
ठहाकेदार हँसी (सबसे उत्तम श्रेणी की हँसी), संता-बंता टाईप हँसी(इसे 3 संकेंड मन को खुशी देनें वाली हँसी भी कह सकते हैं), अट्टहांसी हँसी(जलन भरी हँसी), महानगरी पार्कों की हँसी या जबरजस्ती हँसी, खुली-खुली सी हँसी या (मन/अंतरात्मां से निकली हँसी), बे मनके या टालनें वाली हँसी, खिलखिलाती हँसी(इसे अबोध बालक-मन से निकली शाश्वत हँसी भी कह सकते हैं),मेरी नज़र में ये हँसी की सबसे शाश्वत प्रकार है, धूधंट की ओट लिये शर्मीली या दबी-दबी सी हँसी(इसे अदब भरी हँसी भी कह सकते हैं)।
अब आइये… झूठी हँसी या कॉरपोरेटी हँसी, इसका सबसे सटीक उदाहरण कॉरपोरेटी बिल्डिंग में बैठी किसी रिसेपस्निस्ट(सामान्यत:फिमेल) का बे मन के 3 सेकेंण्ड का झूठा दात किचोरनां है। हमें रोजनां जानें कितनीं बार ऐसी ओछी हँसी का सामनां करनां पड़ता है…मसलन आप किसी मॉल में जायें, फ्लाईट में जायें, या किसी मिंटिंग में ये हँसी हमारा पीछा नहीं छोड़ती…जो आधुनिकवर्ल्ड या यूँ कहें की कॉरपोरेटवर्ल्ड की देन है…
अगर कॉरपोरेटाईजेशन नें हमें फ्री में कुछ दिया तो वो अपनीं कॉरपोरेटी न हँसनें जैसी दो टके की हँसी। शायद ये कॉरपोरेटवर्ल्ड के रश्म निभानें की मज़बुरी हो सकती है लेकिन, कुछ भी हो ऐसी ऐसी नकली हँसी हँसते लोगों को देखकर क्षोभ होता है ।
हँसना अपनीं और हँसाना दुसरों की आत्मां को खुशीयों की सौगात देनें जैसा है, इसके इतर झूठी हँसी, हंसनेवालों के लिये भी और उसका सामनां करनें वालोंके लिये भी हानिकारक हो सकता है । ऐसी हँसी कभी प्रसन्नता नहीं देती बल्कि शास्वत हंसी के शौकिनों के प्रसन्न चित/मन को पीड़ा और देती है ।
दिन की एक खिलखिलाहट भरी मुस्कान आपकी पुरी थकान के लिये रामबाण सिध्द हो सकती है, लेकिन कॉरपोरेटियों की नहसंने जैसी हँसी मन/अंतरआत्मां को ठीक रावणबाण जैसी भेदती है।
क्या आपनें कभी ये जाननें की कोशिश की है की मानव सभ्यता नें हँसी की खोज़ कब की?? मसलन उसनें कब से हँसना शुरु किया होगा?? मुझे भी नहीं पता लेकिन वो जब भी हँसा होगा स्वत: ही उसके अंदर का आदिमानव हार गया होगा…और उसकी वो असभ्य आत्मां स्वत: ही आदिमानव से मानव ज्योनीं में परिवर्तित हो गई होगी।
खुद पर हँसनां और दुसरों पर हंसनां भी हँसी के ही प्रकार हैं…जिस इंसान के अंदर आत्मविश्वास भरा होता है वो खुद पर हँस सकता है,इसके इतर जिस व्यक्ति में इसकी कमी होती है उसे छोटी-छोटी बातें भी बुरी लगती जाती है।
उबास की पहली किरण धरती के असंख्यफूलों को मानों हँसी की सौगात देती है,लेकिन यह(कॉरपोरेटी हँसी) क्रूर व्यंगात्मक विभत्स भी हो सकती है ।
गीता में लिखा है कि खुश रहनें मात्र से बुद्धि स्थिर हो जाती हैमन का विचलन रुक जाता है, मंन शांत हो जाता है और बुद्धि बढ़ती है, इसलिये अर्जुन चिंता छोड़ो और प्रसन्नता से रहो। और आप कॉरपोरेटी अर्जुन, एकलब्य, सकुनीं अपनीं न हंसनें जैसी दो सेकेंडी मुस्कान को ही जारी रखो… क्या पता शायद हमारी शास्वत हँसी आपके नसीब की हो ही ना ??
हँसना लम्बे जीवन के लिये दवा के समान है…लेकिन कॉरपोरेटी हँसी??? कभी समय मिलनें पर सोचियेगा जरुर …
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